Lekhika Ranchi

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प्रतिज्ञा--मुंशी प्रेमचंद जी

...

कमलाप्रसाद चला गया। दाननाथ भी उनके साथ बाहर आए और दोनों बातें करते हुए बड़ी दूर तक चले गए।
सहसा कमलाप्रसाद ने रूक कर कहा - 'साढ़े नौ बज रहे हैं। चलो सिनेमा देख आएँ।'
दाननाथ - 'इसी वक्त! कम-से-कम एक बजे तक होगा। नहीं साहब, आप जाएँ, मैं जाता हूँ।'
कमलाप्रसाद ने दाननाथ का हाथ पकड़ कर अपनी ओर घसीटते हुए कहा - 'अजी चलो भी। वहीं होटल में बैठ कर खा लेंगे, तुम्हें मैनेजर से मिलाएँगे। बड़ा सोहबती आदमी है। उसी के घर भोजन करेंगे।'
दाननाथ - 'नहीं भाई साहब, माफ कीजिए। बेचारी औरतें मेरी राह देखती बैठी रहेंगी।
कमलाप्रसाद - 'अच्छा, अगर एक दिन बारह बजे तक बैठी रहेंगी, तो कौन मरी जाती है। औरतों को बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं होता।'
दाननाथ ने दो-चार बार मना किया, मगर कमलाप्रसाद ने न छोड़ा। दोनों ने मैनेजर के घर भोजन किया और सिनेमा-हाल में जा बैठे, मगर दाननाथ को जरा भी आनंद न आता था। उनका दिल घर की ओर लगा था। प्रेमा बैठी होगी - अपने दिल में क्या कहती होगी? घबरा रही होगी। बुरा फँसा। कमलाप्रसाद बीच-बीच में कहता जाता था - यह देखो चैपलिन आया - वाह-वाह! क्या कहने हैं पट्ठे, तेरे दम का जमूड़ा है - अरे यार, किधर देख रहे हो, जरा इस औरत को देखो, सच कहता हूँ, यह मुझे पानी भरने को नौकर रख ले, तो रह जाऊँ-वाह! ऐसी-ऐसी परियाँ भी दुनिया में हैं। एक हमारा देश खूसट है, तुम तो सो रहे हो जी।'
बड़ी मुश्किल से अवकाश आया। कमलाप्रसाद तो पान और सिगरेट लेने चले, दाननाथ ने दरवाज़े से निकल कर घर की राह ली।
प्रेमा ने कहा - 'बड़ी जल्दी लौटे, अभी ग्यारह ही तो बजे हैं।'
दाननाथ - 'क्या कहूँ प्रिये, तुम्हारे भाई साहब पकड़ ले गए।'
प्रेमा ने तिनक कर कहा - 'झूठ मत बोलो, भाई साहब पकड़ ले गए। उन्होंने कहा होगा, चलो जी जरा सिनेमा देख आएँ, तुमने एक बार तो नहीं की होगी, फिर चुपके से चले गए होंगे। जानते तो थे ही, लौंडी बैठी रहेगी।'
दाननाथ - 'हाँ, कुसूर मेरा ही है। मैं न जाता, तो वह मुझे गोद में न ले जाते, परंतु मैं शील न तोड़ सका।'
प्रेमा - 'जी, ऐसे ही बड़े शीलवान तो हैं आप, यह क्यों नहीं कहते कि वहाँ की बहार देखने को जी ललच उठा।'
दाननाथ - 'कह लो जो चाहो, मगर मुझ पर अन्याय कर रही हो। मैं कैद से छूट कर भागा हूँ, बस इतना ही समझ लो, अम्माँ जी भी बैठी हैं?'
प्रेमा - 'उन्हें तो भोजन करके सुला दिया। इस वक्त जागती होतीं, तो तुमसे डंडों से बातें करतीं। सारी शरारत भूल जाते।'
दाननाथ - 'तुमने भी क्यों न भोजन कर लिया?'
प्रेमा - 'सिखा रहे हो, तो वह भी सीख लूँगी। भैया से मेल हुआ है, तो मेरी दशा भी भाभी की-सी हो कर रहेगी।'
दाननाथ इस आग्रहमय अनुराग से गद्गद हो गए। प्रेमा को गले लगा कर कहा - 'नहीं प्रिये, मैं वादा करता हूँ कि अब तुम्हें इस शिकायत का अवसर कभी न दूँगा। चल कर भोजन कर लो।'
प्रेमा - 'और तुम?'
दाननाथ - 'मैं तो भोजन कर आया।'
प्रेमा - 'तो मैं भी कर चुकी।'
दाननाथ - 'देखो प्रेमा, ज़िद न करो। मैं सच कहता हूँ, खूब छक कर खा आया हूँ।'
प्रेमा ने न माना। दाननाथ को खिला कर ही छोड़ा, तब खुद खाया। दाननाथ आज बहुत प्रसन्न थे। जिस आनंद की-जिस शंका-रहित आनंद की उन्होंने कल्पना की थी, उसका आज कुछ आभास हो रहा था। उनका दिल कह रहा था - 'मैं व्यर्थ ही इस पर शंका करता हूँ। प्रेमा मेरी है, अवश्य मेरी है। अमृतराय के विरुद्ध आज मैंने इतनी बातं, की और फिर भी कहीं तेवर नहीं मैला हुआ। आज आठ महीनों के बाद दाननाथ को जीवन के सच्चे आनंद का अनुभव हुआ।'
प्रेमा ने पूछा - 'क्या सोचते हो?'
दाननाथ - 'सोचता हूँ, मुझ-सा भाग्यवान संसार में दूसरा कौन होगा?'
प्रेमा - 'मैं तो हूँ।'
दाननाथ - 'तुम देवी हो।'
प्रेमा- 'और तुम मेरे प्राणेश्वर हो।'
छः दिन बीत गए। कमलाप्रसाद और उनके मित्र-वृंद रोज आते और शहर की खबरें सुना जाते। किन-किन रईसों को तोड़ा गया, किन-किन अधिकारियों को फाँसा गया, किन-किन मुहल्लों पर धावा हुआ, किस-किस कचहरी, किस-किस दफ़्तर पर चढ़ाई हुई, यह सारी रिपोर्ट दाननाथ को सुनाई जाती। आज यह भी मालूम हो गया कि साहब बहादुर ने अमृतराय को ज़मीन देने से इनकार कर दिया है। ईंट-पत्थर अपने घर में भर रखे हैं बस कॉलेजों के थोड़े-से विद्यार्थी रह गए हैं, सो उनका किया क्या हो सकता है? दाननाथ इन खबरों को प्रेमा से छिपाना चाहते थे, पर कमलाप्रसाद को कब चैन आता था। वह चलते वक्त संक्षिप्त रिपोर्ट उसे भी सुना देते।
सातवें दिन दोपहर को कमलाप्रसाद अपने मेल के और कितने ही आदमियों के साथ आए और बोले - 'चलो जरा बाहर का एक चक्कर लगा आएँ।'
दाननाथ ने उदासीन भाव से कहा - 'मुझे ले जा कर क्या कीजिएगा। आप लोग तो हैं ही।'
कमलाप्रसाद - 'अजी नहीं, जरा चल कर रंग तो देखो, एक हज़ार आदमी ऐसे तैयार कर रखे हैं, जो अमृतराय का व्याख्यान सुनने के बहाने जाएँगे, और इतना कोलाहल मचाएँगे कि लाला साहब स्पीच न दे सकेंगे। टाँय-टाँय फिस होके रह जाएगा। दो-तीन सौ आदमियों को सिखा रखा है कि एक-एक पैसा चंदा देकर चले आएँ। जरा चल कर उन सबों की बातें तो सुनो।'
दाननाथ - 'अभी मेरा व्याख्यान तैयार नहीं हुआ है। उधर गया, तो फिर अधूरा ही रह जाएगा।'
कमलाप्रसाद - 'वाह! वाह! इतने दिनों तक क्या करते रहे, भले आदमी। अच्छा जल्दी से लिख-लिखा लो।'
यह कहते हुए कमलाप्रसाद अंदर चले गए। प्रेमा आज की रिपोर्ट सुनने के लिए उत्कंठित हो रही थी। बोली - 'आइए भैयाजी, आज तो समर का दिन है।'
कमलाप्रसाद ने मूँछों पर ताव देते हुए कहा - 'कैसा समर (चुटकी बजा कर) यों उड़ा दूँगा।'
प्रेमा - 'मार-पीट न होगी?'
कमलाप्रसाद - 'मारपीट की जरूरत ही न पड़ेगी। हाँ, वह लोग छेड़ेंगे तो इसके लिए भी तैयार हैं। उनके जलसे में हमारे ही आदमी अधिक होंगे, इसका प्रबंध कर लिया गया है। स्पीच होने ही न पाएगी। रईस तो एक भी न जाएगा। हाँ, दो-चार बिगड़े दिल, जो अमृतराय के मित्र हैं, भले ही पहुँच जाएँगे, मगर उनसे क्या मिलना है। देने वाले तो सेठ-महाजन हैं, इन्हें हमने पहले ही गाँठ लिया है।'
प्रेमा को बड़ी चिंता हुई। जहाँ इतने विरोधी जमा होंगे, वहाँ दंगा हो जाने की प्रबल संभावना थी। कहीं ऐसा न हो कि मूर्ख जनता उन पर ही टूट पड़े। क्या उन्हें इन बातों की खबर नहीं है? सारे शहर में जिस बात की चर्चा हो रही है, क्या वह उनके कानों तक न पहुँची होगी? उनके भी तो कुछ-न-कुछ सहायक होंगे ही। फिर वह क्यों इस जलसे को स्थगित नहीं कर देते? क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हैं? आज इन लोगों को जलसा कर लेने दें। जब ये लोग जरा ठंडे हो जाएँ, तो दो-चार महीने बाद अपना जलसा करें, मगर वह तो हठी जीव हैं। आग में कूदने का तो उन्हें जैसे मरज है। क्या मेरे समझाने से वह मान जाएँगे? कहीं ऐसा तो न समझेंगे कि यह भी अपने पति का पक्ष ले रही है।
दो-तीन घंटे तक प्रेमा इसी चिंता में पड़ी रही। कोई बात निश्चय न कर पाती थी। दो-तीन बार पत्र लिखने बैठी, पर यह सोच कर दब गई कि कहीं पत्र उन्हें न मिला तो? संभव है, वह घर पर न हों। आदमी उन्हें कहाँ-कहाँ खोजता फिरेगा।
चार बजे। दाननाथ अपने जत्थे के साथ अपने जलसे में शरीक होने चले। प्रेमा को उस समय अपनी दशा पर रोना आया। ये दोनों मित्र जिनमें दाँत-काटी रोटी थी, आज एक-दूसरे के शत्रु रहे हैं और मेरे कारण। अमृतराय से पहले मेरा परिचय न होता तो आज ऐसी लाग-डाँट क्यों होती? वह मानसिक व्यग्रता की दशा में कभी खड़ी हो जाती, कभी बैठ जाती। उसकी सारी करूणा, सारी कोमलता, सारी ममता, उसे अमृतराय को जलसे में जाने से रोकने के लिए उनके घर जाने की प्रेरणा करने लगी। उसका स्त्री-सुलभ संकोच एक क्षण के लिए लुप्त हो गया। एक बार भय हुआ कि दाननाथ को बहुत बुरा लगेगा लेकिन उसने इस विचार को ठुकरा दिया। तेजमय गर्व से उसका मुख उद्दीप्त हो उठा - मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ, किसी के हाथ अपनी धारणा नहीं बेची है, प्रेम पति के लिए है, पर भक्ति सदा अमृतराय के साथ रहेगी।
सहसा उसने कहार को बुला कर कहा - 'एक ताँगा लाओ।'
माता ने पूछा - 'कहाँ जाएगी, बेटी?'
प्रेमा - 'जरा बाबू अमृतराय के घर तक जाऊँगी, अम्माँ जी मुझे भय है कि आज अवश्य फसाद होगा। उनको मना कर दूँ कि जलसे में न आएँ।'
माता - 'बड़ी अच्छी बात है। बेटी मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी। मेरी बात वह न टालेगा। जब नन्हा-सा था, तभी से मेरे घर आता-जाता था। न जाने ऐसी क्या बात पैदा हो गई कि इन दोनों में ऐसी अनबन हो गई। बहू, मैंने दो भाइयों में भी ऐसा प्रेम नहीं देखा।'
प्रेमा - 'यह सब भैया का पढ़ाया हुआ पाठ है। उन्हें आरंभ से बाबू अमृतराय से चिढ़ है। उनका विचित्र स्वभाव है। उनसे बढ़ कर योग्य और कुशल होना अपराध है, जिसे वह क्षमा नहीं कर सकते।'
माता - 'दानू बेचारा भोला है। उनकी बातों में आ गया।'

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